
"असन्तुलित जनसंख्या विस्फोट"
जो सोचते-समझते हैं देश यह हमारा।
कल्याण इस का करना, कर्तव्य है हमारा।
जज़्बा-ए-वतन परस्ती, जिन में उभर रहा है।
कोशिशों से उन की भरत निखर रहा है।
ना बेतहाशा ऐसे लोग बढ़ रहे हैं।
भारत की संख्या को काबू में रख रहे हैं।
जनसंख्या विस्फोट इस देश पर है अत्याचार।
मन में उनके उत्तम, देश धर्म की सोच विचार।
वो ज़िम्मेदारी अपनी बाखूबी सम्भालते हैं।
बच्चों के साथ साथ भारत को पालते हैं।
इस के इलावा देश की तस्वीर और भी है,
इस को डबोने वाली, तकदीर और भी है।
फूल फल रहे हैं इस देश के विरोधी।
क्या राष्ट्र की मुसीबत, जरा फ़िकर तक नहीं।
दिल को कुरेदती इक बात की कमी है।
इन दुशमनाने हिन्द को फिकरे वतन नहीं है।
जन संख्या में उन की बिल्कुल कमी नहीं हैं।
करोड़ों में उन की गिनती दिन रात बढ़ रही है।
बढ़ती तादाद हिंसक उत्पात कर रही है।
अपना जिन्होंने समझा, इस देश को ना अब तक।
दंगा, फसाद नफ़रत, फ़ितरत है जिनकी अब तक।
तादाद ऐसे लोगों की खूब बढ़ रही है।
खतरे की एक घंटी सब को सुना रही है।
बहुत जल्द मुशकिल नज़दीक आ रही है।
चिन्ता एक मन में गहरी सी गढ़ रही है।
देश के ये दुशमन जो गिनती में बढ़ रहे हैं।
नित्त नई उल्झन पैदा वो कर रहे हैं
इन को रोकने से ही देश बच सकेगा।
उन्नति के शिखरों पे तब ही चढ़ सके गा।
सामान्य जन की वृद्धि, अभिशाप है वतन पर।
दशमनों का बढना महा पाप है वतन पर।
दिन-ब-दिन ये लोग बढ़ते चल रहे हैं
उप्रत्यक्ष देश द्रोही, भारत में पल रहे हैं।
आसां कहा है इन को इस वक्त रोक पाना।
बस मुशकिलें लिखेंगी इस देश का फ़साना।
सामान्य जन वृद्धि होती है बेतहाशा।
इस को रोकने की धूमिल हुई है आशा।
खुदा की रजा से है हर बच्चा ले रहा जन्म।
दुनिया में इस से बढ़ कर कोई नहीं भरम।
पहला बच्चा जब तक ना स्कूल जाये गा।
तब तक ना दूसरा दूनिया में आये गा।
सफल जीवन का यही है बढ़िया असल
है इसे हमे निभाना, करना ना कोई भूल।
एक के बाद एक मतवातर जो आयेगा।
दुखी रहेगा खुद भी, सब को सिताये गा।
धरती पे देश की वो बोझ साबन जाये गा।
भूखा ही मर मिटेगा, क्या ख़क खायेगा।
यह बात तो समझ के दायरे से है परे,
मुकद्दर अपना अपने साथ ले कर आये गा।
कितनी बड़ी मुसीबत मां बाप को रहेगी।
छोटे बढ़े नमूने जब पांच सात होंगे।
खाली हाथ बच्चा क्या जायेगा स्कूल
कापी किताब पैंसिल किस किस को दे सकोगे।
सर पर बना रहेगा कर्जे का बोझ भारी।
मजबूरियों के नीचे हर दम दबे रहो गे।
गरमी हो या हो सरदी, नंगा बदन रहेगा
भूखा सा पेट होगा, सूखा सा तन रहेगा।
सर ढांपने को हागा ना छोटा बड़ा मकान,
दर-ब-दर हमेशा ही घूमते रहेगें।

मौत से है बदतर इस किसम का जीना
फूट पाथ पर जियेंगे, फुट पाथ पर मरेंगे।
छा जायेगा बुढ़ापा, यौवन से पहले उन पर
टूटी सी ज़िन्दगी को ले कर वो क्या करेंगे।
बीमारियाँ पलेंगी पूरे जिसम के अन्दर
मर मर के जी रहे जो, जीकर वो क्या करेंगे।
पेट में नहीं कुछ, ना जेब में रहेगा
हर बुरी नज़र का वो सामना करेंगे।
मजबूरियों से उन का फ़साना भरा रहेगा।
जिस्म का वो हिस्सा इज्जत जहां छिपी है
चीथडों से बाहर को झांकता रहेगा।
इतना बड़ा मुलक पर क्यों जुल्म कर रहे हो।
बच्चों की फौज घर में तैयार कर रहे हो।
क्या बनेगा इन का, सोचा कभी किसी ने ?
मां-बाप बन के सोचो क्या पाप कर रहे हो।
दुनिया में आये हैं तो जीने का हक्क उन्हें है
जिन की जिन्दगी से खिलवाड़ कर रहे हो। अपने वतन के दुशमन, अपने ही लोग हैं हम। कम हो रही हैं खुशियां, बढ़ हैं गम। तुम भी ज़रा तो बदलो जमाना बदल रहा है। तरक्की के रास्ते पर अब देश चल रहा है। दिन भर की रौशनी जब देता है एक सूरज,
और रात का अन्धेरा इक चांद हर रहा है। इक लाडले से होती जब जिन्दगी है रौशन। फिर क्यों हमारे घर में बच्चे हों एक दर्जन।
सब से इलाज बढ़िया है खुद पे रखना संयम। विलासता की दल दल में दब गये हैं हम। ब्रह्मचर्य पालना है खान सब सुखों की। झलकती है इस में पहचान गुरमुखों की। भौतिक इलाज इस का नस बन्दी कर रही है। बेफिक्रज़िन्दगी की राहों को कर रही है। परिवार की झोली खुशियों से भर रही है। सरकार हर किसम की इमदाद कर रही है। फिर जिन्दगी यह क्यों कर बेमौत मर रही है। मुशकलातें अपनी बढ़ाता है आदमी। दुनिया भर की आफत उठाता है आदमी। जीना जहान में जब आसान हो रहा है। क्यों बच्चों की और गिनती बढ़ाता है आदमी। जो भी है हाथ हासिल क्यों इस को खो रहा है। जन संख्या का संकट, सब कुछ डबो रहा है। देश में आबादी सन्तुलित जब तक रहे गी। सुख शान्ति की गङ्गा घर घर में फिर बहेगी। भारत के वासियों को भारत पे नाज होगा।
वक्त है अभी भी कुछ सोच पायें जो हम संघर्ष को ना छोड़ें जब तक है दम में दम।
गुमनाम के कहे पर जब उम्र भर चलोगे। | खुश बाश खुद रहोगे औरों को खुश करोगे।